मोदी, मंदिर और अध्यात्म- 5: जब दुनिया भर के हिंदुओं के सामने खड़ी चुनौतियों का अहसास हुआ!

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अहमदाबाद आने के कुछ महीनों के अंदर ही 19 वर्ष के नरेंद्र मोदी संघ की गतिविधियों में तल्लीन हो गये थे. उस जमाने में संघ के लिए काम करने या हाथ बंटाने का अर्थ सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम, शाखा संचालन और विस्तार की चिंता करनी ही नहीं थी, बल्कि भारतीय जनसंघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, वनवासी कल्याण आश्रम के काम में भी हाथ बंटाना था. इन सभी संगठनों का काम करने के लिए न सिर्फ प्रचारक कम थे, बल्कि स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं की भी कमी थी.

मोदी मंदिर और अध्यात्म.

मोदी कभी संघ के गुजरात प्रांत प्रचारक वकील साहब के साथ जाते थे, तो कभी जनसंघ के तत्कालीन संगठन महामंत्री नाथाभाई झगड़ा के साथ, कभी विश्व हिंदू परिषद के मंत्री केका शास्त्री के साथ, तो कभी डॉक्टर वणीकर के साथ, जो वीएचपी के साथ ही वनवासी कल्याण आश्रम के काम में भी जुटे रहते थे. जहां जरूरत, वहां जाना.

विहिप को जल्दी खड़ा करने की जरूरत क्यों?
1969 के इस दौर में युवा नरेंद्र का सबसे अधिक समय विश्व हिंदू परिषद की गतिविधियों में जाता था. वीएचपी की गुजरात इकाई को शुरू हुए महज तीन साल हुए थे, परिषद अपनी उपस्थिति ही दर्ज कराने में लगी थी. इसलिए संघ परिवार के सदस्यों के समर्थन और मदद की सबसे अधिक जरूरत थी वीएचपी को.
इधर- उधर लगातार भाग दौड़ कर रहे मोदी के मन में ये प्रश्न आता था कि आखिर जब संघ, जनसंघ, विद्यार्थी परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम और भारतीय मजदूर संघ को ही अपनी जड़ें गुजरात और देश में जमाने में काफी समय लगने वाला है, उस वक्त विश्व हिंदू परिषद के तौर पर एक और नया संगठन खड़ा करने की जल्दीबाजी क्या थी? बाकी संगठन खूब मजबूत हो जाते, अपना विस्तार कर लेते, तो नये संगठन को खड़ा करने के बारे में सोचा जा सकता था.

जब मोदी ने संघ और विश्व हिंदू परिषद के तत्कालीन बड़े नेताओं से इस विषय में जानकारी हासिल की, कारण जाना, तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. कभी सोचा भी नहीं था कि वीएचपी को तेजी से खड़ा करने के पीछे संघ के तत्कालीन प्रमुख माधव सदाशिव गोलवलकर की ये बेचैनी रही होगी.

मोदी को ये तो पता था कि समाज और राष्ट्र की जरूरतों के हिसाब से संघ और उसके प्रचारकों ने 1949 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, 1951 में जनसंघ, 1952 में वनवासी कल्याण आश्रम और 1955 में भारतीय मजदूर संघ को खड़ा किया था. ये भी कि बलराज मधोक, दत्तोपंत ठेंगड़ी, दीनदयाल उपाध्याय जैसे प्रचारकों ने गोलवलकर के मार्गदर्शन में इन संगठनों को खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

नरेंद्र मोदी सीएम बनने के बाद भी जगन्नाथ मंदिर लगातार जाते रहे हैं.

नरेंद्र मोदी सीएम बनने के बाद भी जगन्नाथ मंदिर लगातार जाते रहे.

मोदी को ये नहीं पता था कि विश्व हिंदू परिषद को फटाफट स्थापित करने का कारण भारत की कोई घटना या तात्कालिक समस्या नहीं, बल्कि भारत से करीब पौने चौदह हजार किलोमीटर दूर बसे हिंदुओं की एक बड़ी समस्या और गहरी पीड़ा थी. मोदी ने जब पूरी बात विस्तार से जानी, तो उनके मन में उठा ये सवाल समाधान पा गया कि आखिर एक और नई संस्था की इतनी तेजी से स्थापना क्यों?

त्रिनिदाद से जुड़े हैं वीएचपी की स्थापना के कारण
वीएचपी की स्थापना का तात्कालिक कारण था क्या? ये कहानी बड़ी रोचक है. इसके तार जुड़ते हैं अमेरिका के प्रमुख शहर न्यूयॉर्क से पांच घंटे की हवाई दूरी पर मौजूद कैरेबियाई देश त्रिनिदाद से. आज भी भारत से त्रिनिदाद के प्रमुख शहर पोर्ट ऑफ स्पेन पहुंचना हो, वो भी हवाई जहाज से, तो भी कम से कम 28- 30 घंटे लगेंगे, सीधी उड़ान कोई है नहीं. दो- तीन स्टॉपओवर के बाद ही पहुंच पाएंगे त्रिनिदाद. जब बीसवीं सदी के आरंभ में समुद्री जहाज से त्रिनिदाद जाना होता था, तो लग जाते थे महीनों.

आज के दौर में त्रिनिदाद को भारत के लोग, खास तौर पर क्रिकेट के चाहक ब्रेवो, पोलार्ड, सुनील नारायण, दिनेश रामदीन, रवि रामपाल जैसे मशहूर खिलाड़ियों के देश के तौर पर जानते हैं, तो पुराने लोग सनी रामदीन और ब्रायन लारा के देश के तौर पर याद करते हैं, जिन्होंने वेस्टइंडीज की टीम से खेलते हुए पूरे दुनिया में लोकप्रियता हासिल की.

साठ के दशक में त्रिनिदाद भारतीय मूल के उन गिरमिटिया मजदूरों के देश के तौर पर जाना जाता था, जहां हिंदी, भोजपुरी बड़े पैमाने पर बोली जाती थी. वो देश अपनी आजादी नई- नई हासिल किये हुए था, ब्रिटिश आधिपत्य से. भारत तो 15 अगस्त 1947 को आजाद हो चुका था, त्रिनिदाद को आजादी 31 अगस्त 1962 को मिली थी.

आजादी के महज एक साल के अंदर त्रिनिदाद से एक सांसद भारत की यात्रा पर आए, नाम था शंभूनाथ कपिलदेव. अंग्रेजी में त्रिनिदाद में इनका नाम लिखा जाता था Simbhoonath Capildeo. त्रिनिदाद में भारतीय मूल के सनातनी हिंदुओं के बीच ईसाई मिशनरियों के हमले और ब्रिटिश आधिपत्य के बीच अपनी पहचान सुरक्षित रखने की चुनौती कितनी बड़ी थी, इसका संकेत था इस तरह से नाम का लिखा जाना भी.

शंभूनाथ कपिलदेव

शंभूनाथ कपिलदेव

त्रिनिदाद में तेजी से हो रहा था हिंदू बच्चों का धर्मांतरण
त्रिनिदाद में मौजूद भारतीय मूल के लोग, जो मोटे तौर पर सनातनी थे, और जिनकी संख्या बड़ी थी, ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन से कालक्रम में आजादी मिलने के बावजूद अपने धर्म का स्वतंत्रता से निर्वाह नहीं कर पा रहे थे. स्कूलों में हिंदू संस्कारों और संस्कृति के हिसाब से पढ़ाई का कोई प्रबंध नहीं था, ईसाई मिशनरी पढ़ाई के नाम पर हिंदू बच्चों का तेजी से धर्मांतरण कर रहे थे. हद तो ये थी स्कूलों में शिक्षक बनने के लिए भी बाप्टिज्म से गुजरना पड़ता था, ईसाई बनना पड़ता था. सनातनियों को उनके संस्कार करवाने के लिए पंडित- पुरोहित तक नहीं मिलते थे, पूरी तरह से ईसाई मिशनरियों का बोलबाला था.

एग्रीमेंट में बंधे गिरमिटिया हिंदू, बंधुआ मजदूरों जैसे हालात
गिरमिटिया हिंदू आर्थिक तौर पर भी कमजोर थे. अफ्रीका में गुलामी की प्रथा और इनके व्यापार को वर्ष 1950 तक ज्यादातर यूरोपीय देशों की तरफ से गैर- कानूनी घोषित किये जाने के बाद, उन्नीसवीं सदी के आखिरी पांच दशकों से भारतीय मजदूरों को गन्ने की खेती के लिए मामूली रकम देकर अंग्रेज लेकर जाते थे त्रिनिदाद. इन मजदूरों को पांच साल तक लगातार काम करने की विधिवत शपथ देनी पड़ती थी, औपचारिक एग्रीमेंट के तौर पर. बंधुआ मजदूरों जैसे हालात थे, जहां अधिकार कुछ नहीं थे, अत्याचार खूब सहना पड़ता था, लेकिन काम छोड़कर जा नहीं सकते थे, एग्रीमेंट हुआ पड़ा था.

पश्चिम काशी के नाम से प्रसिद्ध है पोर्ट ऑफ स्पेन का यह मंदिर, जिसे शंभूनाथ कपिलदेव ने बनवाया था.

पश्चिम काशी के नाम से प्रसिद्ध है पोर्ट ऑफ स्पेन का यह मंदिर, जिसे शंभूनाथ कपिलदेव ने बनवाया था.

जन्मभूमि भारत से हजारों किलोमीटर दूर सुदूर त्रिनिदाद में इनकी सुनने वाला कौन था. एग्रीमेंट के जाल में जकड़े हुए थे ये, एग्रीमेंट के बिगड़े हुए स्वरूप के कारण ही ये गिरमिटिया मजदूर के तौर पर भी जाने गये. फिजी, मॉरीशस, सेशल्स, त्रिनिदाद और गुयाना में आज भी ये आबादी बड़े पैमाने पर है, महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, सियासी और आर्थिक तौर पर.

लेकिन 1963 में जब शंभूनाथ कपिलदेव भारत की यात्रा पर आए थे, तो हालात बड़े ही प्रतिकूल थे, त्रिनिदाद में, भारतीय मूल के सनातनी हिंदुओं के लिए. मंदिर तक नहीं थे, उनके पास पूजा- अर्चना, यज्ञोपवित- विवाह कराने के लिए पंडित- पुजारी भी नहीं थे, शादी मजबूरन ईसाई अंदाज में होती थी. धर्मांतरण बड़े पैमाने पर हो रहा था, हिंदू आबादी घट रही थी.

हिंदू समाज की इसी परिस्थिति को देखते हुए शंभूनाथ कपिलदेव उठ खड़े हुए थे. वकालत में कामयाबी हासिल कर समृद्ध हुए शंभूनाथ 1952 में कुछ साथियों के साथ मिलकर त्रिनिदाद में सनातन धर्म महासभा का गठकर कर हिंदू समाज की अगुआई कर रहे थे. 1956 में संसद सदस्य भी बन चुके थे शंभूनाथ कपिलदेव, भारतीय मूल के लोगों के भरपूर समर्थन के कारण.

अस्तित्व की खातिर अनजान देश जा पहुंचे गिरमिटिया मजदूर
दरअसल शंभूनाथ कपिलदेव के पिता कपिलदेव दूबे उन हजारों लोगों की तरह थे, जो उत्तर प्रदेश सहित भारत के कई हिस्सों से 1845 से 1917 के बीच त्रिनिदाद पहुंचे थे, जो उस समय ब्रिटिश कॉलोनी थी. पराधीन भारत में गरीबी काफी थी, खेती पर लगान भी ब्रिटिश शासक भरपूर वसूलते थे. सूखे और बाढ़ की वजह से फसल भी बर्बाद हो जाती थी, पेट भरना मुश्किल रहता था. ऐसे में अपने अस्तित्व को टिकाये रखने के लिए अगर हजारों किलोमीटर दूर, भयावह पीड़ा झेलते हुए, महीनों का समुद्री सफर तय करते हुए, अनजान देश में भी जाना पड़े, तो लोग जाने को मजबूर थे, गिरमिटिया मजदूर के तौर पर.

कपिलदेव दूबे के परिवार की तस्वीर.

कपिलदेव दूबे के परिवार की तस्वीर.

कपिलदेव दूबे सितंबर 1894 में गोरखपुर के पास मौजूद अपने गांव महादेवा दूबे से निकले थे, बनारस में रजिस्ट्रेशन और फिर कोलकाता से हेराफर्ड (Hereford) समुद्री जहाज के जरिये त्रिनिदाद पहुंचे कपिलदेव. यहीं पर उनकी शादी हुई, गोविंदा नामक एक सरदार ने अपनी बेटी सुगी से कपिलदेव की शादी की. इस दंपत्ति को कुल 14 संतानें हुईं, पहले तीन की बचपन में मौत हो गई. उसके बाद धनपति, कलावती सहित सात लड़कियां हुई, फिर शंभूनाथ और रुद्रनाथ नामक दो बेटों का जन्म हुआ, फिर दो बेटियां, जिनमें से एक का नाम द्रौपदी रखा गया.

द्रौपदी ही मशहूर साहित्यकार सर विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल की मां थीं. इन्हीं वीएस नायपॉल ने अपनी पु्स्तकों के जरिये दुनियाभर के साहित्य प्रेमियों का दिल जीता, 1971 में बुकर प्राइज हासिल किया, 2001 में इन्हें नोबेल पुरस्कार मिला.

तब तक पटेल के प्रभाव से कांग्रेस को मुक्त कर चुके थे नेहरू 
नायपॉल के मामा शंभूनाथ कपिलदेव जब 1963 में भारत आए, उस वक्त केंद्र में जवाहरलाल नेहरू की सरकार थी, ज्यादातर राज्यों में भी कांग्रेसी सरकारें थीं. तब तक नेहरू सरदार पटेल के प्रभाव से कांग्रेस को पूरी तरह मुक्त कर चुके थे, आखिर सरदार को परलोक गये हुए भी करीब तेरह साल हो चुके थे, उनके ज्यादातर संगी- साथी, जो सनातन मूल्यों में आस्था रखते थे, या तो किनारे लगाये जा चुके थे या पार्टी छोड़ चुके थे.

राजेंद्र प्रसाद, जिन्होंने सरदार पटेल के संकल्प और प्रेरणा से पुनर्निर्मित हुए सोमनाथ मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में, राष्ट्रपति रहते हुए, 11 मई 1951 को बतौर मुख्य यजमान भाग लिया था, नेहरू की इच्छा के खिलाफ जाकर, वो पटना में अपने अंतिम दिन गुजारते हुए 28 फरवरी 1963 को स्वर्ग सिधार चुके थे.

नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का भी यथासंभव विरोध किया था. मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के मौके पर दुनिया के तमाम देशों से मिट्टी, जल और दूर्वा मंगाये जाने पर मंत्रिमंडल के अपने साथी कन्हैयालाल माणेकलाल मुंशी पर नाराज हो गये थे नेहरू, राजेंद्र प्रसाद के अंतिम संस्कार तक में शामिल नहीं हुए थे.

जो कांग्रेस हिंदू वोटों के सहारे अपनी सियासत की जमीन आजादी के पहले हुए आंदोलनों और चुनावों में हासिल कर पाई थी, जब मुस्लिम वोट मुस्लिम लीग को जाते थे और जिस पर तंज कसते हुए पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहा करते थे, वो नेहरू के यूटोपिया और पीएम पद संभालने के कारण हासिल हुए रसूख के कारण हिंदू मूल्यों से लगातार दूर होती चली गई.

नेहरू सरकार के लिए हिंदुत्व दकियानूसी ताकतों का प्रतीक था
नेहरू की अगुआई वाली कांग्रेसी सरकार के लिए हिंदू शब्द दकियानूसी और प्रतिक्रियावादी ताकतों का प्रतीक था. सेक्युलरिज्म की अतिवादी परिभाषा मुस्लिम तुष्टीकरण की हद तक पहुंच चुकी थी, लेकिन सनातन मूल्यों और प्रतीकों से परेशानी थी. 1951 में जब सोमनाथ मंदिर का निर्माण कार्य चल रहा था, एक दफा नेहरू ने गुस्से में इसे हिंदू रिवाइवलिज्म का प्रतीक तक कह दिया था. हिंदू पुनरूत्थान उनके लिए दकियानूसी विचार था.

ऐसी सोच वाले नेहरू और उनकी सरकार के मिजाज से अनजान शंभूनाथ कपिलदेव 1963 के नवंबर महीने में एक खास दरख्वास्त लेकर भारत आए थे. मांग थी त्रिनिदाद में मौजूद हिंदू, जो गरीबी और ईसाई मिशनरियों की धर्मांतरण की चुनौती के बीच अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे, उनको मजबूत करने के लिए भारत से कुछ हिंदू पंडित, धर्माचार्य और धार्मिक पुस्तकें भेजी जाएं, ताकि वो अपने सनातनी संस्कारों से विमुख न हो सकें, उसका ढंग से पालन कर सकें.

शंभूनाथ कपिलदेव को भारत से उम्मीद पालने की वजह भी थी, आखिर ये उनके पुरखों का देश था. उनके पिता कपिलदेव दूबे त्रिनिदाद जाने के बावजूद अपने सीमित साधनों में भारत आते रहते थे, जन्मभूमि से इतना प्यार था. 1909 में भी आए थे कपिलदेव दूबे और 1926 में भी. 1926 में त्रिनिदाद वापस लौटने की तैयारी करते समय भारत में ही कपिलदेव दूबे का देहांत भी हो गया था.

कपिलदेव दूबे अपने समय में शादी, जनेऊ जैसे संस्कार त्रिनिदाद के हिंदुओं के लिए करा देते थे. खुद चुस्त सनातनी थे, अपने घर के ऊपर शेर पर सवार दुर्गा की मूर्ति लगाई हुई थी. इसी वजह से कपिलदेव का ये घर आज भी लॉयन हाउस के तौर पर जाना जाता है, सैलानियों के लिए भारतीय स्थापत्य को त्रिनिदाद में समझने का जरिया है.

पिता की तरह शंभूनाथ ने भी अपनी किशोरावस्था में पुरोहिताई का काम कुछ समय के लिए किया था. लेकिन पिता की मौत के बाद लंबे- चौड़े परिवार का पेट पालने के लिए पुरोहिताई पर्याप्त नहीं थी, वकालत करनी पड़ी. हालात ये थे त्रिनिदाद में हिंदुओं को उनके धर्म और जन्म, विवाह, मरण जैसे संस्कार और धार्मिक अनुष्ठान करवाने या उसके बारे में ढंग से जानकारी देने के लिए भी ज्यादा लोग मौजूद नहीं थे. ईसाई मिशनरियों की आक्रामक धर्मांतरण गतिविधियों के कारण त्रिनिदाद से हिंदू धर्म ही खत्म होने का खतरा पैदा हो गया था. ऐसे में शंभूनाथ कपिलदेव सनातन संस्कृति के उद्भव स्थल भारत से उम्मीद नहीं करते, तो भला किससे करते.

तुलसीदास रचित रामचरित मानस के अलावा त्रिनिदाद के हिंदुओं के पास अपने को हिंदू धर्म से जोड़े रखने के लिए कुछ भी नहीं था, उस ग्रंथ की प्रतियां भी सीमित थीं, शिक्षा भी नगण्य. ऐसे हालात में ईसाई मिशनरियों के दबाव और लालच में गरीब हिंदू सनातन धर्म से विमुख न हो जाएं, धर्मांतरित न हो जाएं, इसके लिए जरूरी था कि उनको धार्मिक शिक्षा दी जाए. त्रिनिदाद के लोगों के लिए पूजा- पाठ की व्यवस्था की जाए, इसके लिए पुजारी, संत और जरूरी पुस्तकें भेजी जाएं, यही मांग थी शंभूनाथ कपिलेदव की.

लेकिन शंभूनाथ कपिलदेव को नेहरू सरकार से निराशा हुई. सेक्युलरिज्म के नशे में डूबी नेहरू सरकार भला त्रिनिदाद के हिंदुओं की मदद कैसे कर सकती थी, भले ही मुस्लिम वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए देश- विदेश में तमाम कदम उठाए जाएं, फिलिस्तीन का समर्थन किया जाए, इजरायल से दुश्मनी पाली जाए.

शंभूनाथ स्वतंत्र हिंदुस्तान के पहले प्रधानमंत्री नेहरू से जब मिले, तो नेहरू ने हाथ झाड़ लिया, उल्टे झिड़क दिया, टाल दिया, कह दिया जो भारतीय 1947 के पहले देश छोड़कर जा चुके हैं, उनके लिए कुछ नहीं किया जा सकता. यही हाल बाकी मंत्रियों का भी रहा, आखिर सेक्युलर सरकार भला इस तरह की मदद कैसे कर सकती थी, ये भाव था उनका.

जब नेहरू सरकार से उपहास और झिड़की के अलावा शंभूनाथ कपिलदेव को कोई मदद नहीं मिली, तो उनकी ये पीड़ा विदेश विभाग के एक अधिकारी से देखी नहीं गई, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ प्रचारकों और अधिकारियों को जानता था. इसी अधिकारी ने शंभूनाथ कपिलदेव को दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अधिकारियों से मिलने के लिए कहा.

उम्मीद की किरण पाले संघ कार्यालय पहुंचे शंभूनाथ कपिलदेव
शंभूनाथ कपिलदेव उम्मीद की किरण पाले संघ के झंडेवालान कार्यालय गये, जहां उनकी मुलाकात दिल्ली के संघचालक लाला हंसराज से हुई. लाला हंसराज ने त्रिनिदाद से आए शंभूनाथ कपिलदेव की समस्या आराम से सुनी और इसके हल के लिए उन्हें संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर से मिलने की सलाह दी, जो समाज जीवन में गुरुजी के तौर पर मशहूर थे.

लाला हंसराज की सलाह मानते हुए शंभूनाथ कपिलदेव ने गुरुजी से मिलने की सोची. मोबाइल का जमाना था नहीं, सिर्फ इतना पता था कि गोलवलकर कर्नाटक के प्रवास पर हैं. बेंगलुरु स्थित कार्यालय पर फोन किया गया, पता चला कि गुरुजी बेलगांव में हैं. ये जानकारी जुटाने के बाद शंभूनाथ कपिलदेव बेलगांव पहुंचे, जहां गुरुजी एक के बाद एक तमाम जिलों का दौरा करते हुए पहुंचे थे.

गोलवलकर ने दिया मदद का आश्वासन
शंभूनाथ कपिलदेव ने गुरुजी से कहा कि वो एक व्यक्ति के तौर पर नहीं, बल्कि त्रिनिदाद के हिंदुओं के प्रतिनिधि के तौर पर उनके पास बड़ी उम्मीद से आए हैं. उन्होंने गोलवलकर को अपनी समस्या विस्तार से बताई और दिल्ली में नेहरू सरकार से मिली निराशा का भी जिक्र किया. गुरुजी ने उन्हें मदद का आश्वासन दिया. इससे प्रसन्न हुए शंभूनाथ कपिलदेव ने दो तस्वीरों पर गुरुजी के ऑटोग्राफ लिये, ताकि त्रिनिदाद वापस जाकर वो गुरुजी से अपनी मुलाकात के बारे में सहधर्मी हिंदुओं को प्रामाणिक ढंग से बता सकें और उन्हें ढाढस बंधा सकें.

गुरुजी ने मदद का आश्वासन तो दे दिया शंभूनाथ कपिलदेव को, लेकिन ये मदद कैसे दी जाए, इसके बारे में विचार किया. उन्होंने अपने दो सहयोगियों, लक्ष्मणराव भिड़े, जो विदेश में हिंदुओं को संगठित करने में लगे हुए थे, और दीनदयाल उपाध्याय, जो जनसंघ नेता के तौर पर कई देशों के दौरे में, वहां रह रहे हिंदुओं की समस्याओं और अपेक्षाओं से वाकिफ थे, से पहले ही काफी कुछ जान रखा था.

देश में भी हिंदुओं के सामने चुनौती बड़ी थी, खास तौर पर आदिवासी इलाकों में. त्रिनिदाद की तरह यहां भी ईसाई मिशनरी आदिवासी इलाकों में भोले- भाले वनवासियों को लालच देकर धर्मांतरित कर रहे थे. जस्टिस नियोगी आयोग की रिपोर्ट पहले ही आ चुकी थी, उसने धर्मांतरण की भयावह समस्या को देश के सामने खोलकर रख दिया था.

ऐसी परिस्थिति में इन चुनौतियों से निबटने और दुनिया भर में फैले हिंदुओं की समस्याओं के समाधान और उनकी एकजुटता के लिए विश्व हिंदू परिषद यानी वीएचपी की स्थापना की पहल गुरुजी ने की. संघ से इस कार्य के लिए शिवराम शंकर आप्टे को लगाया गया, जो दादा साहेब आप्टे के तौर पर भी मशहूर थे. हिंदुस्थान समाचार के संस्थापक रहे आप्टे देश- दुनिया में हिंदुओं के सामने आ रही चुनौतियों से पूरी तरह वाकिफ थे. श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के शुभ दिन, 29 अगस्त 1964 को, जब परिषद की स्थापना के लिए मुंबई के सांदीपनी साधनालय में बैठक हुई, तो उसमें गुरुजी और दादा साहेब आप्टे के अलावा संघ के और भी कई वरिष्ठ प्रचारक मौजूद थे. आप्टे ने ही विश्व हिंदू परिषद की परिकल्पना इस बैठक में पेश की, जिसके आधार पर इस संगठन का गठन हुआ उस दिन.

विश्व हिंदू परिषद की स्थापना के लिए 29 अगस्त 1964 को मुंबई के सांदीपनी साधनालय में बैठक हुई.

विश्व हिंदू परिषद की स्थापना के लिए 29 अगस्त 1964 को मुंबई के सांदीपनी साधनालय में बैठक हुई.

मैसूर के महाराजा बने विश्व हिंदू परिषद के पहले अध्यक्ष
विश्व हिंदू परिषद के कार्य को देश दुनिया में फैलाने के लिए संघ के प्रचारक और स्वयंसेवक बड़ी तादाद में लगे. जिला से लेकर विश्व स्तर पर हिन्दू सम्मेलन का आयोजन करने की योजना बनी. इसी के तहत पहला विश्व स्तरीय सम्मेलन प्रयाग में कुंभ के अवसर पर आयोजित किया जाना तय हुआ. विश्व हिंदू परिषद के पहले अध्यक्ष बनाये गये मैसूर के महाराजा और मद्रास के तत्कालीन राज्यपाल जयचामराज वाडियार, संरक्षक बने मशहूर उद्योगपति जुगल किशोर बिड़ला. जिस समय विश्व हिंदू परिषद की स्थापना हुई, या फिर उसके विस्तार की कोशिशों के तहत प्रयाग में बड़ा सम्मेलन आयोजन करने की योजना बनी, नेहरू राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो चुके थे. विश्व हिंदू परिषद की मुंबई में स्थापना से तीन महीने पहले उनका 27 मई, 1964 को निधन हो चुका था.

नेहरू के निधन के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे, जो काशी क्षेत्र के सनातनी कायस्थ परिवार से थे, जिन्हें न तो मंदिर जाने से परहेज था, न ही पूजा- पाठ से. मां गंगा की स्तुति तो उनके विद्यार्थीकाल में रोजाना ही होती थी, गंगा पारकर वो पढ़ाई करने आते थे. विश्व हिंदू परिषद की स्थापना को लेकर उनकी तरफ से कोई विरोध नहीं हुआ.

शास्त्री तो प्रयाग (इलाहाबाद) से ही चुनाव लड़ते थे. संघ के वरिष्ठ प्रचारक, जो चौथे संघ प्रमुख भी बाद के दिनों में बने, उन राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया से शास्त्री की काफी बनती थी. तत्कालीन संघ प्रमुख गोलवलकर का भी वो काफी सम्मान करते थे. 1965 के भारत- पाकिस्तान युद्ध के दौरान मंत्रणा के लिए उन्होंने गुरुजी को भी बुलाया था. नेहरू का जितना विरोध संघ और उससे जुड़े संगठनों को लेकर लंबे समय तक रहा था, उससे उलट शास्त्री का रवैया सकारात्मक था.

महाकुम्भ पर हुआ विश्व हिंदू सम्मेलन का आयोजन
प्रयाग में महाकुम्भ के अवसर पर जब 22, 23 और 24 जनवरी 1966 को विश्व हिंदू सम्मेलन का आयोजन हुआ, उस समय गुलजारीलाल नंदा अंतरिम प्रधानमंत्री थे. शास्त्री का ग्यारह दिन पहले ही देहांत हो चुका था. नंदा नेहरू के देहांत के बाद भी कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाये गये थे, क्योंकि मंत्रिमंडल में वरिष्ठता क्रम में दूसरे नंबर पर थे.

गृह मंत्री थे उस वक्त नंदा, कामराज योजना के तहत मोरारजी देसाई जैसे उनसे वरिष्ठ नेताओं की मंत्रिमंडल से छुट्टी हो चुकी थी. इसलिए संसदीय दल में शास्त्री के पक्ष में बहुमत है, ये घोषणा करते हुए सिंडिकेट उनको प्रधानमंत्री बनाती, उससे पहले 27 मई 1964 से 9 जून 1964 के बीच अंतरिम प्रधानमंत्री की भूमिका निभा चुके थे नंदा.

गुजरात की स्थापना के बाद 1962 में हुए चुनावों में साबरकांठा से सांसद बने थे नंदा. 1965 की लड़ाई के बाद तत्कालीन सोवियत संघ की मध्यस्थता में, जब ताशकंद में भारत और पाकिस्तान के बीच समझौता हुआ, उसके तुरंत बाद ताशकंद में ही शास्त्री का देहांत हो गया था, 11 जनवरी 1966 को. उस समय भी कैबिनेट में नंबर 2 थे नंदा, गृह मंत्री थे.

सिंडिकेट ने बनवाया ‘गूंगी गुड़िया’ इंदिरा को प्रधानमंत्री
एक बार फिर से अंतरिम प्रधानमंत्री की भूमिका निभानी पड़ी नंदा को, तब तक, जब तक कि कांग्रेस को चलाने वाले कामराज की अगुआई वाले सिंडिकेट ने, अपने काबू में रखने की मंशा के साथ, ‘गूंगी गुड़िया’ के तौर पर इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला नहीं कर लिया, मोरारजी देसाई के मुकाबले. 24 जनवरी 1966 को इंदिरा गांधी के पीएम बनने तक अंतरिम प्रधानमंत्री रहे थे नंदा और इसी दौरान 22 से 24 जनवरी के बीच प्रयाग में विश्व हिंदू परिषद के बैनर तले आयोजित हुआ पहला विश्व हिंदू सम्मेलन. मिल मजदूरों की अगुआई करने वाले नंदा गांधीवादी थे, चुस्त सनातनी भी. ये नंदा ही थे, जिन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बाद 1983 में श्रीराम जन्मोत्सव समिति का गठन किया था दिल्ली में और उसी साल मुजफ्फरनगर में आयोजित हुई उस बैठक में भी शामिल हुए थे, जिसमें रामजन्मभूमि पर फिर से मंदिर निर्माण का औपचारिक संकल्प लिया गया था.

1966 में प्रयाग में हुआ विश्व हिंदू सम्मेलन ही वो पहला अवसर था, जब गुरूजी के प्रयासों से चारों शंकराचार्य सहित हिंदुओं के सभी पंथों और संप्रदायों से जुड़े हुए धर्माचार्य और साधु- संत एक मंच पर इकट्ठा हुए. यही नहीं, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल विश्वनाथ दास, बिहार के राज्यपाल अनंत शयनम आयंगर और बंगाल के राज्यपाल कैलाशनाथ काटजू भी सम्मेलन में विशेष तौर पर शामिल हुए थे.

नेपाल के प्रधानमंत्री तुलसी गिरि भी इस सम्मेलन में विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर पहुंचे थे. विदेश में रहने वाले भारतीय और भारतीय मूल के नागरिक भी पहुंचे थे बड़ी तादाद में. सम्मेलन में भाग लेने वालों की कुल संख्या 75,000 के पार पहुंच गई, अनुमान से तिगुनी अधिक. सम्मेलन में संस्था के उद्देश्यों के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई.

दुनियाभर के हिंदुओं को संगठित करने की अपील
सम्मेलन का उद्घाटन करने वाले उत्तर प्रदेश के राज्यपाल विश्वनाथ दास ने वीएचपी से अपील कर डाली कि संसार भर में जहां- जहां हिंदू धर्म के अनुयायी रहते हैं, उन्हें संगठित किया जाए और भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए अधिक से अधिक सहयोग प्राप्त किया जाए. सम्मेलन के दौरान हिंदू समाज के अंदर एकता स्थापित करने पर सभी ने बल दिया, साथ ही घर वापसी, मंदिरों का पुराना वैभव स्थापित करने, गोरक्षा और संस्कृत शिक्षा के प्रसार से संबंधित प्रस्ताव भी पारित किये गये.

अंतरराष्ट्रीय स्तर के इस पहले सम्मेलन की सफलता के बाद क्षेत्रीय और प्रांतीय स्तर पर भी सम्मेलन आयोजित करने की सोची गई. इससे पहले क्षेत्रीय, प्रांतीय और जिले स्तर पर संगठन का ढांचा खड़ा करना जरूरी था. 24 अगस्त 1966 को मुंबई में आयोजित हुई एक बैठक में तेजी से क्षेत्र, प्रदेश और जिला स्तर पर समितियों के गठन का फैसला हुआ.

वर्ष 1966 में प्रयाग के सम्मेलन के बाद ही विश्व हिंदू परिषद की गुजरात इकाई शुरू हुई थी. संघ परिवार की अहमदाबाद की गतिविधियों में जब नरेंद्र मोदी 1969 में शामिल हुए, उस वक्त जिला स्तर पर विश्व हिंदू परिषद का कामकाज कुछ खास जमा नहीं था, गतिविधियों का केंद्र अहमदाबाद ही था. काफी मेहनत करनी थी.

Tags: Narendra modi, PM Modi, RSS, VHP

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